अजमेर शरीफ दरगाह
अजमेर शहर का सर्वाधिक प्रसिद्ध और दर्शनीय सीमा चिन्ह
अजमेर शरीफ दरगाह, भारत की सबसे अधिक पवित्र धार्मिक स्थलों में से एक मानी जाती है और अजमेर के सीमा चिन्ह के रूप में प्रसिद्ध है। पर्शिया (फारस) से आए सूफी संत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की समाधि यहीं पर है। ख़्वाजा साहब की धर्म निरपेक्ष शिक्षाओं के कारण ही, इस दरगाह के द्वार सभी धर्मों, जातियों और आस्था के लोगों के लिए खुले हुए हैं। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को मुस्लिम धर्म के प्रेरक मोहम्मद साहब का प्रत्यक्ष रूप से वंशज माना जाता है और ख़्वाजा साहब ने जन साधारण में उनकी धारणाओं और विश्वास को प्रचारित किया। ऐसा कहा जाता है कि एक बार ख़्वाजा साहब को सपने में मोहम्मद साहब ने प्रेरित तथा प्रवृत्त किया कि दुनियां की सैर करने के दौरान, भारत दर्शन के लिए अवश्य जाएं। ख़्वाजा साहब भारत आए, अजमेर पहुँचे और इसी जगह को सन् 1192 से अपनी मृत्यु के समय तक सन् 1236 ए. डी. तक अपना घर बना लिया। इस सूफी सन्त के सम्मान तथा स्मृति में यह दरगाह ( समाधि ) मुग़ल बादशाह हुमायूं द्वारा बनवाई गई थी। दरगाह तक पहुंचने पर आप जब अन्दर आएंगे तो आप चाँदी के बने हुई कई विशाल दरवाजों से होते हुए एक बड़े आंगन ( चौक ) में पहुँचेंगे, जिसके बीचों बीच इस संत की समाधि बनी हुई है। सफेद मार्बल पत्थर से चारों ओर की सीढ़ियां, दीवारंे, जाली, झरोखे बने हैं तथा गुम्बद पर सोने की प्लेटिंग की हुई है। अन्दर की तरफ चारों ओर चाँदी के कटघरे / रेलिंग से समाधि सुरक्षित है और मार्बल का सुन्दर जालीदार पर्दा लगा हुआ है। शहंशाह अकबर अपने शासनकाल के दौरान, प्रतिवर्ष अजमेर की इस दरगाह के दर्शन करने आता था। शहंशाह अकबर और मुग़ल बादशाह शाहजहां ने दरगाह के परिसर के अन्दर कुछ मस्जिदों का निर्माण करवाया था। यहां आने वाले श्रृद्धालु और दर्शक यहाँ की शांतिपूर्ण स्थिरता तथा फूलों, ख़ुश्बूदार अगरबत्तियों और मिठाई की भीनी महक से भरपूर वातावरण को देख कर श्रृद्धा और विस्मय से चकित रह जाते हैं।